विकास के बजाए विवादों की भेंट चढ़ी मोदी सरकार में शिक्षा व्यवस्था
27 December 2016
भारत की युवा आबादी के लिहाज से शिक्षा का क्षेत्र बेहद अहम है। लेकिन बीजेपी सरकार में पिछले ढाई वर्षों से यह लगातार विवादों में है। वहीं एसोसिएटेड चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (एसोचैम) की ताजा रिपोर्ट में देश की शिक्षा व्यवस्था को लेकर गंभीर चेतावनी दी गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में शिक्षा व्यवस्था में प्रभावशाली बदलाव नहीं किए गए तो विकसित देशों की बराबरी करने में छह पीढियां या 126 साल लग जाएंगे। मोदी सरकार के ढाई साल बीतने के बाद आई यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है। दरअसल केंद्र की सरकार ने लगातार दूसरे बजट में भी शिक्षा का बजट घटा दिया। इसके विपरित विकसित देशों ने शिक्षा पर किए जा रहे खर्च की रफ्तार में कोई कमी नहीं की है। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 3.83 फीसदी हिस्सा खर्च करता है, जबकि अमेरिका शिक्षा पर अपनी जीडीपी का 5.22 फीसदी, जर्मनी 4.95 फीसदी और ब्रिटेन 5.72 फीसदी खर्च करता है। इन हालातों में देश में 61 लाख ऐसे बच्चे हैं जिन्हें स्कूली शिक्षा नहीं मिल रही है। खासतौर पर बालिका शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है।
सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम बेसलाइन सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार 15 से 17 साल की लगभग 16 प्रतिशत लडकियां स्कूल बीच में ही छोड़ रही हैं। साल 2016 में शिक्षा के क्षेत्र में सरकार कोई बड़ा आमूलचूल परिवर्तन नहीं कर पायी। उल्टा मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कई ऐसे फैसले लिए, जिससे शिक्षा क्षेत्र विकास के बजाए विवाद के चलते ज्यादा सुर्खियों में रहा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय से स्मृति ईरानी को हटाकर प्रकाश जावेडकर को नियुक्ति किया जाना, हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या से जुडे घटनाक्रम, जेएनयू छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष कन्हैया कुमार से जुडे घटनाक्रम एवं कुछ संस्थाओं से जुडे मामले ही शिक्षा के नाम पर सुर्खिया बटोरते रहे, लेकिन ऐसा कोई मामला नहीं आया जिसे सुखद कहा जाये।
लगभग सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में टकराव और उथल-पुथल का माहौल है। जेएनयू, हैदराबाद, बीएचयू, इलाहाबाद, एनआईटी कश्मीर और जादवपुर विश्वविद्यालयों में जबरदस्त टकराव की स्थितियां पैदा हुईं। इसके उलट शिक्षा के क्षेत्र में अब तक कोई उल्लेखनीय पहलकदमी नहीं हुई है। तहलका में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यूपीएससी के पूर्व सदस्य प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, ‘जहां तक मुझे याद पड़ता है, शैक्षिक नीतियों में औपचारिक रूप से कोई बुनियादी बदलाव तो आया नहीं है। उच्च शिक्षा की नीति कागज पर तो वही है जो कपिल सिब्बल के समय थी। अब सवाल ये है कि इस सरकार में किस तरह के लोगों को नियुक्त किया जा रहा है। किस तरह का वातावरण विश्वविद्यालय के रोजमर्रा के कामकाज में बनाया गया है। शिक्षा को लेकर कोई महत्वपूर्ण पहल नहीं हो रही है। अलबत्ता शिक्षा का बजट जरूर कम कर दिया गया है।’ नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन भी केंद्र सरकार की शिक्षा को लेकर सुस्त रवैये की आलोचना कर चुके हैं। भारत रक्षा सौदे पर बजट खर्च करने वाले देशों में दुनिया में चौथे स्थान पर है और 2018 में तीसरे स्थान पर आ जायेगा। रक्षा बजट पर मेहरबानी की आढ़ में शिक्षा बजट से बेरुखी क्या देश को महँगी नहीं पड़ेगी?
इस वित्तीय वर्ष में यूजीसी को मिलने वाले फंड में सरकार ने 50 फीसदी की कटौती कर दी। जाहिर है यूनिवर्सिटियों पर तो असर हुआ, छात्रों को मिलने वाली फेलोशिप में रुकावट आ गयी। यूजीसी का कहना है कि वो पैसों की कमी से खेल, लाइब्रेरी, दलित और आदिवासी छात्रों के लिए छात्रवृत्ति समेत दूसरे कामों के लिए मदद नहीं कर पा रहा है। यूजीसी के उपसचिव जीएस चौहान का कहना है कि फंड नहीं मिलने से अनुसूचित जाति और जनजातियों को मिलने वाली फेलोशिप संकट में है। देश के जाने-माने शिक्षाविद प्रोफेसर कृष्ण कुमार का कहना है कि यूजीसी फंड में 50 फीसदी की कटौती किसी कैंसर से कम नहीं है। उन्होंने कहा कि भारत दुनिया के उन देशों में है जहां शिक्षा पर सबसे कम निवेश होता है। मोदी सरकार आने के बाद नई शिक्षा नीति के लिए बनी टीएसआर सुब्रमण्यन समिति के प्रोफसर सुब्रमण्यन का भी कहना है कि उच्च शिक्षा में सरकारी निवेश लगातार कम हो रहे हैं। सुब्रमण्यन कमिटी के सिफारिशों को फिलहाल मोदी सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है। इससे पहले 2009 में बनी यशपाल समिति की सिफिरिशों को मनमोहन सरकार ने भी ठंडे बस्ते में डाल दिया था। यशपाल समिति ने उच्च शिक्षा में सरकारी निवेश बढ़ाने का समर्थन किया था।
साठ साल के इतिहास में लगातार दूसरी बार मोदी सरकार में ही ऐसा हुआ है कि शिक्षा का बजट बढ़ाने की बजाए घटा दिया गया है। देश की यूनिवर्सिटियों में होने वाला 65 फीसदी दाख़िला निजी कॉलेजों में हो रहा है। यह शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा देने की नीति है। ऐसी स्थिति में शिक्षा तक सबकी पहुँच दूभर हो जाएगी। शिक्षाविद् अनिल सद्गोपाल ने मोदी सरकार द्वारा शिक्षा बजट में हजारों करोड़ रुपये की कटौती को शिक्षा का बाजारीकरण बताया है। अनिल सद्गोपाल का शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण पर कहना है कि मोदी सरकार वो करने जा रही है जो पिछले साठ सालों में किसी सरकार ने नहीं किया।
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